कक्षा – 11 जीवविज्ञान , अध्याय – 5,NCERT CLASS 11TH ,CHAPTER – 5, part -4,FULL HAND WRITTEN NOTES

कक्षा – 11 जीवविज्ञान , अध्याय – 5,NCERT CLASS 11TH ,CHAPTER – 5, part -4,FULL HAND WRITTEN NOTES

पुष्पासन पर पुष्पपत्रों का निवेशन (Insertion of floral leaves on the thalamus)

अधोजाय पुष्प (Hypogenous flower)- जब पुष्प के अन्य भाग जायांग (gynoecium) के नीचे उत्पन्न होते हैं तो ऐसे पुष्प पुष्प कहते हैं; जैसे- सरसों, गुडहल आदि | को अधोजाय

जायांगोपरिक (Epigynous flower)- जब जायांग के ऊपर पुष्प के अन्य भाग उत्पन्न होते हैं तो ऐसे पुष्प जैसे सेब, खीरा, अमरूद आदि । – को जायांगोपरिक पुष्प कहते हैं;

परिजायांगी पुष्प (Perigynous flower)- जब जायांग तथा पुष्प के अन्य भाग पुष्पासन पर समान स्थिति में उत्पन्न होते हैं तो ऐसे पुष्प को परिजायांगी पुष्प कहते हैं; जैसे- गुलाब, आडू (peach) आदि|
सहपत्री तथा असहपत्री पुष्प (Bracteate and Ebracteate)- जब पुष्प में सहपत्र (bracts) उपस्थित हों तो पुष्प सहपत्री कहलाता है तथा सहपत्र अनुपस्थित हो तो पुष्प असहपत्री कहलाता है।

बाह्यदलपुंज (Calyx)- यह पुष्प का सबसे बाह्य चक्र होता है जो प्रायः नीचे की ओर पाया जाता है। यह बहुत-सी इकाइयों (units), जिन्हें बादल (Sepal) कहते हैं, से मिलकर बनता है।

युक्तबाह्यदली पुष्प (Gamosepalous flower)- एक पुष्प के सभी बाह्यदल यदि आपस में संयुक्त होते हैं तो इन्हें युक्तबाह्यदली पुष्प कहते हैं; जैसे- बैंगन, धतूरा आदि।

पृथकबाह्यदली पुष्प (Polysepalous flower)- यदि किसी पुष्प के बाह्यडाक एक-दूसरे से अलग होते हैं तो इसे पृथकबाह्यदली पुष्प कहते

हैं; जैसे- सरसों
• यदि बाहयदल पुष्प कलिका के खिलते ही झड़ जाये तो इसे शीघ्रपाती (caducous) कहते हैं, जैसे- अफीम | यदि बाहयदल पुष्प खिलने के बाद परागण होने तक पुष्प से लगे रहें तो इसे पर्णपाती (deciduous) कहते हैं; जैसे- सरसों, मूली और यदि बायदल फल बन जाने पर भी न झड़े तो इसे चिरलग्न (persistent) कहते हैं, जैसे- टमाटर, मिर्च आदि ।

(कभी-कभी बाहयदलपुंज के नीचे सहपत्रिकाओं का एक अन्य चक्र भी होता है जिसे अनुबाहयदल (epicalyx) कहते हैं; जैसे- मालवेसी कुल के पौधों में।)

दलपुंज (Corolla)- पुष्प में यह बाह्यदलपुंज के बाद आने वाली दूसरी चक्र है जो बहुत सी पंखुड़ियों (petals) से मिलकर बना होता है। प्रायः ये भड़कीले रंग की होती हैं।

युक्तदली पुष्प (Gamopetalous flower)- जब दल परस्पर जुड़े होते हैं; जैसे- बैंगन, तम्बाकू आदि|

पृथकदली पुष्प (Polypetalous flower)- जब पुष्प के सारे दल (petals) स्वतंत्र होते हैं तब ऐसे पुष्प को पृथकदली पुष्प कहते हैं; जैसे सरसों, गुलाब आदि|
पुष्पदल विन्यास (Aestivation of corolla)- कलिका अवस्था में दलों की या बाह्यदलों की परस्पर व्यवस्था को पुष्पदल विन्यास कहते हैं।

ये अग्र प्रकार की होती हैं

1. कोरस्पर्शी (valvate)- जब दल या बाहयदल एक-दूसरे को छूते भर हैं, परस्पर ढकते नहीं हैं; जैसे- सरसों आदि |

2. व्यावर्तित (Twisted)- इनमे दल (या बाहयदल) का एक भाग अपने पड़ोसी दल के कुछ भाग को ढक लेता है और इसका दूसरा भाग पिछले दल से स्वयं ढक जाता है, जैसे गुडहल आदि|

3. कोरछादी (Imbricate)- इसमें एक दल (या बाहयदल) के दोनों किनारे पडोसी दो दलों (या बाहयदल) के किनारों से ढके रहते हैं और एक अन्य दल (या बाह्यदल) के दोनों किनारे संलग्न दलों के किनारों को ढके रहते हैं। शेष दलों में एक किनारा पास के दल के तट से ढका रहता है और दूसरा पास के दल के किनारे को ढके रहता है; जैसे- अमलताश आदि |

4. Quincuncial- जब दो पुष्पदल ( या बाहयदल) के दोनों किनारे ढके हो, अन्य दो बाहयदल के दोनों किनारे बाहर हो तथा शेष एक बादल का एक तट ढका तथा दूसरा बाहरी होता है; जैसे- अमरूद आदि में।

5. ध्वजिक (Vaxillum)- इसमें पश्चदल सबसे बड़ा होता है, यह दो पार्श्व दलों को ढके रहता है। इसके अलावा सबसे नीचे स्थित दो दल नाव जैसी संरचना बनाते हुए परस्पर जुड़े रहते हैं।
दलों की आकृति – पुष्पों का रूप दलों के आकार और ससंजन (cohesion) पर निर्भर करता है। पौधों में निम्नलिखित प्रकार के दलपुंज मिलते हैं।

A. पृथकदलीय (Polypetalous )- 1. नियमित आकार
a. क्रूसिफार्म (Cruciform )- इस प्रकार के दलपुंज सरसों में पाए जाते हैं। इसमें चार पृथक दल होते हैं। ये दल एक क्रॉस (x) के समान विन्यसित रहते हैं।

b. कैरियोफिल्लेसियस (Caryophyllaceous) – इस प्रकार के दलपुंज में पाँच दलपुंज होते हैं जैसे- खट्टी-बूटी आदि |
c. गुलाबवत (Rosaceous )- इस प्रकार के दलपुंज में पाँच या अधिक दल पाए जाते हैं जैसे- गुलाब आदि |
2. अनियमित आकार

पैप्लियोनेसियस (Papillonaceos) – यह मटर कुल (papillonaceous) का लाक्षणिक दलपुंज है जिसमें पाँच स्वतन्त्र दल पाए जाते हैं। पश्च दल सबसे बड़ा होता है। इसके अतिरिक्त दो सबसे निचले दल जो प्रायः एक-दूसरे से संयुक्त रहते हैं नौतल (Keel or carina) कहलाते हैं।

कभी-कभी बाह्यदल तथा दल में स्पस्ट अन्तर नही हो पाटा और पुष्प में दोनों का एक संयुक्त चक्र बन जाता है जिसे परिदलपुंज (perianth) कहते हैं| परिदलपुंज के एक भाग को टेपल (tepal) कहते हैं; जैसे- लिलियेसी कुल के सदस्यों में |

पुमंग (Androecium)- यह पुष्प का तीसरा तथा आवश्यक चक्र होता है जो नर भाग कहलाता है। यह पुंकेसरों (stamens) से मिलकर बनता है| प्रत्येक पुंकेसर एक पुतन्तु ( filament ), एक संयोजी ( connective) तथा एक सबसे मुख्य भाग परागकोष (anther) से मिलकर बना होता है।

पुंकेसर का परागकोष से योजन- पुतन्तु का परागकोष से योजन निम्नलिखित चार प्रकार से संभव है-
(i) संलग्न (Adnate)- पुतन्तु परागकोष की पीठ की ओर आधार से शिखर तक पूरी लम्बाई में जुड़ा रहता है; जैसे चम्पा आदि |
(ii) अधःबध्द (Basifixed )- पुतन्तु परागकोष के आधार पर जुड़ा रहता है; जैसे- सरसों
(iii) पृष्ठलग्न (Dorsifixed ) – पुतन्तु परागकोष के पृष्ठ भाग से दृढ़तापूर्वक जुड़ा रहता है; जैसे- पैसीफ्लोरा में |

(iv) मुक्तडोली (Versatile)- पुतन्तु परागकोष के पृष्ठ ताल पर एक बिन्दु पर जुड़ा रहता है और परागकोष स्वतंत्रतापूर्वक अपने स्थान पर हिल-डुल सकता है; जैसे घासों में ।

पुंकेसरों का ससंजन (Cohesion of stamens)- पुंकेसरों में ससंजन निम्नलिखित प्रकार का होता है-
(i) पृथक पुन्केसरी (Polyandrous )- जब पुमंग में सभी पुंकेसर एक-दूसरे से अलग-अलग रहते हैं तो इस अवस्था को पृथक पुन्केसरी कह हैं; जैसे- सरसों
(ii) संघीयता (Adelphy)- जब पुमंग के केवल पुतन्तु आपस में ससंजित होते हैं किन्तु परागकोष स्वतन्त्र होते हैं तो इस अवस्था को संघीयता कहते हैं। यह अग्र प्रकार का होता है
a. एकसंघी पुंकेसर (Monoadelphous )- इसमें सभी पुतन्तु एक समूह में जुड़े रहते हैं तथा जायांग के चारों ओर एक नलिका के रूप में होते हैं जिसे पुन्केसरी नाल (staminal tube) कहते हैं। किन्तु परागकोष अलग-अलग होते हैं; जैसे- मालवेसी कुल में |
b. व्दिसंघी पुंकेसर (Diadelphous )- जब सभी पुतन्तु दो बंडलों में बंट जाते हैं; जैसे- मटर में
c. बहुसंधी पुंकेसर (Polyadelphous )- जब पुतन्तु अनेक बंडलों में बंट जाते हैं, जैसे- सेमल में |
(iii) युक्ताकोशी (Syngenesious )- इसमें केवल परागकोष ही आपस में जुड़े रहते है तथा पुतन्तु स्वतन्त्र रहते हैं; जैसे गेंदे में |
(iv) संयुक्त पुन्केसरीय (Synandrous )- इसमें पुंकेसर अपनी पूरी लम्बाई में जुड़े रहते हैं; जैसे- कुकुरबिटा में |

पुंकेसरों का आसंजन (Adhesion of stamens)- पुंकेसरों के पुष्प के अन्य भागों से जुड़ने को पुंकेसरों का आसंजन कहते हैं, जैसे पुंकेसरों के दलों से जुड़ने को दललग्न (Epipetalous) (बैंगन में) तथा पुंकेसरों के परिदलों (tepals) से जुड़ने को परिदललग्न (Epiphyllous) (प्याज में) और कभी-कभी पुंकेसरों के अन्डपों (carpels) से जुड़े होने पर पुंजायांग ( gynandrous) (मदार में) कहे जाते हैं। पुंकेसरों की लम्बाई- ये दो प्रकार के होते हैं

(i) व्दिदीर्घी (Didynamous)- इनमे पुंकेसरों की संख्या 4 होती है जिनमे से दो लम्बे तथा दो छोटे पुंकेसर होते हैं; जैसे- लेबियेटी कुल में। (ii) चतुर्दीर्घी (Tetradenamous )- इनमे अंत चक्र में उपस्थित चार लम्बे तथा बाह्य चक्र में उपस्थित दो छोटे चक्र पुंकेसर होते हैं; जैसे क्रूसीफेरी कुल में|
• कभी-कभी पुंकेसर बंध्य होता है और छोटा रह जाता है, ऐसे पुंकेसर को स्टेमिनोड ( Staminode) कहते हैं। प्रत्येक ऐसा परागकोष जिसमें दो पालियां होती हैं तथा चार परागकोष्ठ पाए जाते हैं, व्दिकोष्ठी (dithecous) कहलाता है, जैसे- सरसों तथा जिस परागकोष में केवल एक पाली पायी जाती है और केवल दो परागकोष्ठ पाए जाते हैं; ऐकपाली (monothecous) कहलाता है; जैसे गुडहल

जायांग (Gynoecium= Pistil)- यह पुष्प का मादा जनन अंग है। यह बहुत से अण्डपों (carpels) का बना होता है जो संयुक्त रूप से जायांग या पिस्टिल कहलाते हैं। प्रत्येक अण्डप नीचे से ऊपर की ओर अण्डाशय (ovary), वर्तिका (style) और वर्तिकाग्र (stigma ) में बंटा होता है। जब जायांग में केवल एक अण्डप पाया जाता है तब उसे एकाण्डपी (monocarpellary) कहते हैं; जैसे- लेग्यूमिनोसी और ग्रेमिनी कुल के पौधों में।
जब अनेक अण्डप पुष्पासन के चारों ओर स्थित होते हैं तो ऐसे जायांग को बहुअण्डपी (multicarpellary) कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं 1. पृथकाण्डपी (Apocarpous )- सभी अण्डप पृथक होते हैं; जैसे- कमल, चम्पा (michelia) |
2. युक्ताण्डपी (Syncarpous ) – सभी अण्डप आपस में जुड़े होते हैं; जैसे- गुडहल, प्याज, टमाटर|
वर्तिका (stigma ) – यह अण्डप का शीर्ष भाग होता है।
अण्डाशय (Ovary)- यह पुष्प का अत्यंत महत्वपूर्ण भाग है। इसमें बीजाण्ड (ovules) पाए जाते हैं। निषेचन के पश्चात् अण्डाशय फल (fruit) में बदल जाता है।
अण्डाशय को कोष्ठों की संख्या के आधार पर निम्न प्रकारों में बाँटा जा सकता है
1. एककोष्ठकी (Unilocular)- इसमें एककोष्ठ पाया जाता है; जैसे मदर कुल के पौधे ।
2. व्दिकोष्ठकी (Bilocular)- जैसे सरसों, मिर्च
3. त्रिकोष्ठकी (Trilocular)- जैसे- लिलीएसी कुल के सदस्यों में।
4. चतुष्कोष्ठकी (Tetralocular) – जैसे धतूरा में|
5. पंचकोष्ठकी (Pentalocular)- जैसे गुडहल में|
6. बहुकोष्ठकी (Multilocular)- जैसे अफीम में |

बीजाण्डन्यास (Placentation ) – बीजाण्डासन (placenta ) मृदूतक (parenchyma) का बना होता हुआ अण्डाशय के अन्दर की भिति पर लगा एक छोटा सा उभरा हुआ भाग होता है जिस पर बीजाण्ड (ovules) लगे होते है। अण्डाशय में बीजाण्ड के लगने के क्रम को बीजाण्डन्यास (placentation) कहते हैं। पौधों में निम्नलिखित प्रकार के बीजाण्डन्यास पाए जाते हैं।

1. सीमान्त (marginal)- अण्डाशय में केवल एककोष्ठ होता है और बीजाण्ड केवल अधर सीवनी ( ventral suture) पर विकसित होता है। इस प्रकार का बीजाण्डन्यास एक अण्डपी जायांग में पाया जाता है; जैसे- चना, मटर, सेम ( लेग्युमिनोसी कुल में) आदि|
2. स्तम्भीय (Axile)- इसमें बीजाण्डासन (placenta ) अण्डाशय के केन्द्रीय अक्ष से निकलता है। पुष्प के प्रत्येक अण्डप के पट केन्द्रीय अक्ष की ओर बढ़कर मिल जाते हैं। यह व्दिअण्डपी से लेकर बहुअण्डपी, युक्ताण्डपी अण्डाशय में मिलता है; जैसे- गुडहल, आलू, टमाटर आदि में।
3. भितीय (Parietal)- इसमें भी केवल एक ही कोष्ठ होता है जिसका निर्माण दो या अधिक अण्डपों वाले युक्ताण्डपी अण्डाशय से होता है। दो या दो से अधिक अण्डपों के तट जहाँ पर मिलते हैं वहीं पर बीजाण्डासन विकसित हो जाते हैं; जैसे- पपीता, मूली, सरसों आदि में।
4. मुक्त स्तम्भीय ( Free central)- इसमें अण्डाशय युक्ताण्डपी होते हैं जिससे बीजाण्ड केन्द्रीय अक्ष के चारों ओर लगे होते हैं; जैसे प्रिमरोज |
5. आधारलग्न (Basal)- इसमें अण्डाशय एककोष्ठकी होता है और बीजाण्ड अण्डाशय के आधार पर विकसित होता है। प्रत्येक बीजाण्डा से केवल एक ही बीजाण्ड जुड़ा रहता है; जैसे- सूर्यमुखी (कम्पोजिटी कुल के सदस्य )
6. परिभितीय (Superficial)- इनमे अण्डाशय बहुकोष्ठकीय होता है। कोष्ठको की भीतरी दीवार पर बीजाण्डासनीय ऊतक होते हैं जिनपर अनेक बीजाण्ड उत्पन्न होते हैं; जैसे- कमल |

फल (Fruit)- निषेचन के पश्चात् अण्डाशय से ही फल का निर्माण होता है। अण्डाशय की भिति ही बाद में फलभिति (pericarp) बनाती है। फलभिति पतली या मोटी हो सकती है। मोटी फलभिति में प्रायः तीन स्तर होते हैं। बाहरी स्तर को बाह्य फलभिति (epicarp) और सबसे अंदर की स्तर को अन्तः फलभिति (endocarp) कहते हैं। तथा मध्य के स्तर को मध्यफलभिति (Mesocarp) कहते हैं। फल की जैविक आवश्यकता बीजों की सरक्षा के लिए है।
सत्य फल (True fruit)- जब फल के बनने में पुष्प का केवल अण्डाशय ही भाग लेता है तो ऐसे फल को सत्य फल कहते हैं; जैसे- मटर, आम, नारियल आदि । असत्य फल (False fruit)- जब फल के बनने में पुष्प के अन्य भाग जैसे- दलपुंज, बाह्यदलपुंज, पुष्पासन आदि भाग लेते हैं तो ऐसे फलों को कूट फल या असत्य फल कहते हैं; जैसे- सेब, नाशपाती में फल के बनने में पुष्पासन भाग लेता है|
अनिषेकफलन (Parthenocarpy)- कभी-कभी पौधे में बिना निषेचन क्रिया के ही अण्डाशय उद्दीप्त होकर फल में बदल जाता है। ऐसे फल को अनिषेकफलनी फल (parthenocarpic fruit) तथा इस घटना को अनिषेकफलन कहते हैं। ये फल प्रायः बीजरहित (seedless) होते हैं, यदि बीज होते भी हैं तो उनमे अंकुरण की क्षमता नही पायी जाती है; जैसे केला, अमरूद, अंगूर, संतरा आदि | –

• आजकल ऑक्सिन व जिबरेलिन जैसे हॉर्मोन की उचित सांद्रता के घोल को पुष्पों के ऊपर छिड़ककर बीजरहित फल प्राप्त किये जाते हैं।

फलों का वर्गीकरण- फल मुख्यतः निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं

1. एकल फल (simple fruits)- ये फल एकाण्डपी अथवा व्दिअण्डपी या बहुअण्डपी, युक्ताण्डपी अण्डाशय से विकसित होते हैं।

2. पुंजफल या समूह फल (Aggregate fruit or Etaerio fruit)- ये फल दो या अधिक अण्डपों परन्तु मुक्त अण्डाशय से विकसित होते हैं। इस प्रकार एक पुष्प के स्थान पर अनेक फल उत्पन्न होते हैं।
3. ग्रंथिल फल (Composite fruits or multiple fruits)- इनमे फल का निर्माण सम्पूर्ण पुष्पक्रम से होता है।

1. एकल फल ये फल दो भागों में विभाजित किये गये है- (a). शुष्क फल

(b). गूदेदार फल

(a). शुष्क फल (dry fruits)- इन फलों में फलभिति (pericarp) गूदेदार नहीं होती है। इसे तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है

1. स्फोटक फल अथवा संपुटी फल (Dehiscent fruits or capsular fruits) परिपक्व होने पर इन फलों की फलभिति फट जाती है और बीज फलभिति से बाहर आ जाते हैं इन्हें निम्नलिखित पाँच भागों में बांटा जा सकता है

(i). फली (Legume or pod)- यह एकाण्डपी एककोष्ठकी तथा उर्ध्व अण्डाशय (superior ovary) से विकसित फल हैं। अण्डाशय में सीमान्त बीजाण्डन्यास पाया जाता है और बहुत से बीजाण्ड होते हैं। फलभिति सूखने पर ही बीज स्वतन्त्र होते हैं। यह कुल-फेबेसी (family fabaceae) या पेपिलियोनेसी (Papillonaceae) जे सदस्यों में पाया जाता है जैसे मटर, सेम, दालें आदि |

• जब फली बहुत छोटी हो तथा उसमें केवल एक या दो बीज ही हों तब इसे पोड (Pod) कहते हैं। उदाहरण- चना |

(ii). फोलिकल (Folicle)- यह एक एकाण्डपी, एककोष्ठी, उर्ध्ववर्ती अण्डाशय से बनता है। ये फल प्रायः जोड़े ने या दो से अधिक एक साथ पाए जाते हैं। उदाहरण मदार, चम्पा आदि |

(iii). सिलिक्यूआ (Sillqua)- यह एक शुष्क, लम्बा, पतला, बहुबीजी फल है जिसका विकास व्दिण्डपी, युक्ताण्डपी, उर्ध्वअण्डाशय से होता है। यह कुल क्रुसीफेरी का लाक्षणिक फल है। उदाहरण- सरसों ।

(iv). सिलिकुला (Silicula)- यह फल पूर्णतः सिलिक्युआ के समान होता है, परन्तु आकार में छोटा तथा चौड़ा होता है। इसमें बीजों की संख्या प्रायः कम होती है, उदाहरण कैप्सेला, कैंडीटफ्ट |

(v). सम्पुट या कैप्सूल (Capsule)- यह बहुअण्डपी, युक्ताण्डपी, उर्ध्व अण्डाशय तथा कभी-कभी अधोवर्ती अण्डाशय से विकसित बहुबीजीय फल होता है। उदाहरण- कपास, पोस्त, धतूरा, भिन्डी |
2. अस्फोटक या एकीनियल फल ( Indehiscent or Achenial fruit)- ये फल परिपक्व होने पर फटते नही है तथा बीज फलभिति के अन्दर ही रहते हैं। इस प्रकार के फलों को निम्नलिखित पाँच भागों में बांटा गया है

(i) एकीन (Achene)- ये एकाण्डपी, उर्ध्व अण्डाशय से विकसित फल है। ये एककोष्ठिय तथा एकबीजी होते हैं। उदाहरण- क्लीमेटिस, नारवेलिया |

(ii) कैरियोप्सिस (Caryopsis)- इसका विकास एकाण्डपी, उर्ध्व अण्डाशय से होता है। यह एककोष्ठकीय तथा एकबीजी फल होता है। इसकी फलभित्ति बीजावरण से संयुग्मित रहती है। इस कारण फल तथा बीज को अलगनही किया जा सकता है। उदाहरण- कुल ग्रेमिनी के पौधे जैसे गेहूँ, चावल, मक्का | अतः गेहूँ, चावल, मक्का, गेहूँ के दाने बीज न होकर वास्तव में फल हैं।

(iii) सिप्सेला (Cypsela)- यह फल दिअण्डपी, युक्ताण्डपी, अधोवर्ती अण्डाशय से विकसित होता है। यह एककोष्ठकीय तथा एकबीजी होता है। इन फलों में रोमिल बाहयदल चक्र फल से लगा रहता है जिसे पेपस कहते हैं। उदाहरण- कुल कम्पोजिटी के पौधे जैसे- सूरजमुखी, गेंदा, आदि|

(iv) नट (Nut)- यह व्दि या बहुअण्डपी, युक्ताण्डपी, उर्ध्व अण्डाशय से विकसित एककोष्ठकीय तथा एकबीजी फल होता है। इसमें फलभिति कठोर, काष्ठीय तथा चिमड़ी (Leathery) होती है; जैसे- लीची, काजू, सिंघाड़ा आदि |

• सिंघाड़ा में फल के साथ लगे कांटे, बाह्यदलों का रूपांतरण हैं।

(v) समारा (Samara)- यह व्दिअण्डपी, युक्ताण्डपी, उर्ध्व अण्डाशय से विकसित एकबीजी फल होता है। उदाहरण- चिलबिल आदि |