कक्षा – 11 जीवविज्ञान , अध्याय – 5,NCERT CLASS 11TH ,CHAPTER – 5, part -1,FULL HAND WRITTEN NOTES

कक्षा – 11 जीवविज्ञान , अध्याय – 5,NCERT CLASS 11TH ,CHAPTER – 5, part -1,FULL HAND WRITTEN NOTES

       

  अध्याय 5

पुष्पी पादपों की आकारिकी (रुपान्तरण)

आकारिकी विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत पौधों के विभिन्न बाह्य संरचनात्मक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। पुष्पी पादपों के विभिन्न भागों की आकारिकी, उनके रूपान्तरण एवं महत्वपूर्ण कार्य निम्नवत है
मूल या जड़ (Root)- जड़े बीज में स्थित भ्रूण के मूलांकुर (radicle) से विकसित होता है, इस जड़ को प्राथमिक मूल (primary root) कहलाता है| प्राथमिक मूल से शाखाएं व उपशाखाएं भी निकलती हैं। ये सभी सम्मिलित रूप से मूल तंत्र (root system) बनाते हैं। जड़ें सामान्यतः भूमि के नीचे पायी जाती है। इनका मुख्य कार्य पौधे को मृदा में स्थिर बनाए रखना तथा भूमि से जल व खनिज लवणों का अवशोषण करना होता है।
जड़ो के विशिष्ट लक्षण
1. जड़ों पर पर्व (nodes) व पर्वसंधियाँ (internodes) नहीं पायी जाती तथा इन पर पतियों, पुष्प व कलिकाओं का भी अभाव होता है।
2. जड़ों में पर्णहरित नहीं पाया जाता है इसी कारण इनका रंग भूरा होता है।
3. जड़ों पर एककोशिकीय लम्बे व पतले मूलरोम (root hairs) पाए जाते हैं। ये भूमि से जल व खनिजों का अवशोषण करते हैं।
4. जड़ें प्रकाश से दूर (negative phototrophic) तथा भूमि की आकर्षण शक्ति की ओर (धनात्मक गुरुत्वाकर्षी, positively geotropic वृध्दि करती है।
जड़ों के प्रकार- जड़ें तीन प्रकार के होते हैं- 1. मूसला जड़ (Tap roots ) झकडा जड़ या तन्तुमय जड़ (Fibrous roots)
2. अपस्थानिक जड़ (Adventitious roots )
1. मूसला जड़- इन जड़ों की उत्पति मूलांकुर (radicle) से प्राथमिक जड़ के रूप में होती है। प्राथमिक जड़ से व्दितीयक व तृतीयक जड़ें निकलती हैं। इन सभी को मिलाकर मूसला जड़-तंत्र बनता है। इस प्रकार की जड़ें व्द्विबीजपत्री पौधों में पायी जाती है।

मूसला जड़ों के रूपान्तरण
(i) ग्रंथिमय-मूसला जड़ें (Nodulated Roots )- इस प्रकार की जड़ें लेग्युमिनोसी कुल के पौधों में पायी जाती हैं. जैसे- अरहर, मटर, चना आदि| इनकी जड़ों में गाँठे पाई जाती हैं जिन्हें मूल ग्रंथिकाएँ (root nodules) कहते हैं। इन ग्रंथिल रचनाओं में सहजीवी जीवाणु (symbiotic bacteria) पाए जाते हैं। ये जीवाणु स्वतन्त्र वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को उसके यौगिकों में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया को नाइट्रोजन स्थिरीकरण कहते हैं यह जीवाणु एवं लेग्यूम की जड़ों के बीच का जीवन सहजीवन का एक अच्छा उदाहरण है।
(ii) पुश्ता जड़ें (Buttress roots)- ये जड़ें तने के आधार से निकलकर क्षैतिज वृध्दि करती है तथा पौधों को सहारा देने का कार्य करती है।
जैसे- गूलर (Ficus ), पीपल तथा फाइकेसी कुल के पौधों में
(iii) श्वसन मूल (Pneumatophores or Respiratory roots)- इस प्रकार की जड़ें दलदली भूमि में उगने वाले पौधों में पायी जाती है। ये जड़ें दलदल से बाहर सीधी निकल जाती हैं खूँटी जैसी रचनाओं के रूप में दिखाई देती है। ये जड़ें ऋणात्मक गुरुत्वाकर्षी (negatively geotropic) होती हैं। इन पर अनेक छिद्र होते हैं, जिन्हें श्वसन छिद्र कहते हैं। इनका मुख्य कार्य श्वसन करना होता है। इसी कारण इन्हें श्वसन मूल कहते हैं। उदाहरण- राइजोफोरा आदि पौधे में इन पौधों को मैन्ग्रोव पौधे कहते हैं।

(iv) संग्राहक जड़ें (storage roots)- इस प्रकार की जड़ें भोजन संचय के कारण भिन्न-भिन्न आकार की हो जाती हैं, जैसे

a.शंकुरूपी (Conical)- ये जड़ें ऊपर मोटी तथा नीचे की ओर क्रमशः पतली होती चली जाती है, जैसे- गाजर (Daucus carota)

b. तर्कुरूपी (Fusiform)- इस प्रकार की जड़ें भोजन संचय के कारण बीच में मोटी तथा दोनों किनारों की ओर पतली होती हैं। इनसे व्दितीयक तथा तृतीयक जड़ें निकलती हैं, जैसे- मूली (Raphanus sativus)

c. कुम्भीरूप (Napiform)- ये जड़ें ऊपर बहुत मोटी तथा गोलाकार हो जाती है तथा नीचे का भाग एकाएक पतला हो जाता है, जैसे शलजम (Brassica rapa ), चुकन्दर (Beta vulgaris) |

d. कन्दिल (Tuberous )- इस प्रकार की जड़ें किसी भी स्थान पर फूलकर मोटी हो जाती हैं और इनकी कोई निश्चित आकृति नही होती, जैसे- मिरेबिलिस (Mirabilis) |

2. अपस्थानिक जड़ें- ये जड़ें प्रायः एकबीजपत्री पौधों तथा बरगद आदि में पाई जाती हैं। इनकी उत्पति मूलांकुर के अतिरिक्त किसी अन्य भाग से होती है, जैसे- तने के निचले पर्वों से जड़ें उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार की जड़ों के समूह को अपस्थानिक जड़ तंत्र कहते हैं।

अपस्थानिक जड़ों के रूपांतरण

(i). कंदगुच्छ या पुलकित जड़ें (Fasciculated roots ) – इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें तने के आधार से गुच्छे के रूप में निकलती है और कन्दिल जड़ों की भांति अनियमित आकार की होती हैं, जैसे- डहेलिया (Dahelia), सतावर (Asparagus ) |
(ii). कन्दिल जड़ें (Tuberous roots)- ये जड़ें तने की गाँठ (nodes) से निकलकर भूमि में प्रवेश करती हैं और भोज्य पदार्थों के एकत्रित होने से फूलकर अनियमित आकार की हो जाती है, जैसे- शकरकन्द (Ipomea batatas) |
(iii) स्तम्भ मूल (Prop root)- ये मोटी वायवीय जड़ें होती हैं जो तनों की शाखाओं से निकलकर भूमि में चली जाती है और तनों को सहारा देने का कार्य करती हैं, जैसे- बरगद (banyan) |
(iv) जटा मूल (Stilt root)- ये जड़ें तने की निचली पर्वसंधियों से निकलती हैं। ये मिटटी में धंसकर अनेक शाखाएं बनाती हैं और पौधे को सहारा प्रदान करती हैं, जैसे- मक्का (maize ), गन्ना (sugarcane) आदि |
(v) आरोही मूल (Climbing root)- इस प्रकार की जड़ें तने की पर्वसंधियों (nodes) अथवा पर्व (internode) से निकलती हैं। ये जड़ें सहारा प्रदान करने वाले पौधे से लिपटकर पादप को ऊपर चढ़ने में सहायता करती हैं। उदाहरण पान (Betal), मनीप्लांट (Pothos), सदाबहार काली मिर्च आदि |

(vi) परजीवी मूल (parasite root or sucking root)- परजीवी पौधों की कुछ जातियां, जैसे- अमरबेल (Cuscuta) में इस प्रकार की जड़ें पायी जाती हैं। ये जड़ें पोषद पौधे में धंसकर भोजन अवशोषण का कार्य करती हैं। इस प्रकार की जड़ों को परजीवी मूल कहते हैं। इनके अन्य उदाहरण हैं- विस्कम (Viscum), साइट्स आदि |

(vii) उपरिरोही मूल या वायवीय जड़ (Epiphytic root or Aerial root)- इस प्रकार की जड़ें हवा में लटकी रहती हैं तथा अधिपादप पौधों में पायी जाती है। ये जड़ें हवा में लटककर नमी का अवशोषण करती हैं। उदाहरण- आर्किड्स |

(viii) प्लावी जड़ (Floating roots )- जलीय पौधों में इस प्रकार की जड़ें पायी जाती हैं। इन जड़ों में एरेनकाइमा ऊतक पाया जाता है, जिनमें वायु संग्रह करके ये पौधों के तैरने में सहायक होती हैं। उदाहरण- जूसिया (Jussiaea )

(ix) स्वांगीकरण जड़ (Assimilatory root)- इस प्रकार की जड़ों की कोशिकाओं में हरितलवक पाया जाता है जिसके कारण ये भोजन निर्माण का कार्य करती हैं। जैसे सिंघाड़ा (Trapa), टीनोस्पोरा (Tinospora )

(x) पत्रमूल या पर्णिल मूल (leaf root or Epiphyllous root)- जब पतियों की सतह पर जड़ें निकलती हैं तो इस प्रकार की जड़ों को पत्र

मूल कहते हैं जैसे- अजूबा (Bryophyllum पथरचट्टा), बिगोनिया |

(xi) कंटक मूल (Thom root)- कुछ पौधों के तने से जड़ें निकलकर सख्त कांटे जैसी हो जाती हैं इन्हें कंटक मूल कहते हैं, ये सुरक्षा का कार्य करती हैं, जैसे मनीप्लांट

(xii) जड़विहीन पादप (rootless plant) ये ऐसे पुष्पी पौधे हैं जिनमे जड़ें अनुपस्थित होती हैं, जैसे- वोल्फिया (Wolfia)|

3. झकड़ा जड़ या तन्तुमय जड़ (Fibrous roots )- एकबीज पत्री पौधों में प्राथमिक मूल कम समय तक ही जीवित रहती हैं। अतः इन पौधों में ताने के आधार से मूले (roots) निकलती हैं, जो झकड़ा मूल तंत्र बनाती हैं।

जड़ के भाग (regions of root)- जड़ के अग्रिम भागों को निम्नलिखित चार विभिन्न क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है

1. मूलगोप (Rootcap)- यह जड़ के अगले सिरे पर एक छोटी पतली तथा चिकनी टोपी के आकार की रचना होती है। यह जड़ों के सिरे पर स्थित कोमल कोशिकाओं को नष्ट होने से बचाती है।

2. कोशिका निर्माण प्रदेश (Zone of cell formation)- मूलगोप के ठीक पीछे शीर्षस्थ विभज्योतक (apical meristem) होता है, जिसमें निरन्तर कोशिका विभाजन के व्दारा नई कोशिकाओं की उत्पति होती रहती है।

3. कोशिका विवर्धन प्रदेश (Zone of cell elongation)- विभाजन प्रदेश के ठीक पीछे जड़ के 3-4 मिलीमीटर भाग में नई बनी कोशिकाएँ
लम्बाई में बढ़ती रहती हैं। इसे कोशिका विवर्धन प्रदेश कहते हैं।
4. कोशिका विभेदन एवं परिपक्वन प्रदेश (Zone of cell defferentiation Zone of cell matuaration)- कोशिका विवर्धन प्रदेश के पीछे कोशिका विभेदन प्रदेश आता है। इस प्रदेश में कोशिकाएँ अपने कार्यों के अनुसार कायांतरित होकर अपना निश्चित अंतिम रूप ले लेती है।
(v) आरोही मूल (Climbing root)- इस प्रकार की जड़ें तने की पर्वसंधियों (nodes) अथवा पर्व (internode) से निकलती हैं। ये जड़ें सहारा प्रदान करने वाले पौधे से लिपटकर पादप को ऊपर चढ़ने में सहायता करती हैं। उदाहरण पान (Betal), मनीप्लांट (Pothos), सदाबहार काली मिर्च आदि |

(vi) परजीवी मूल (parasite root or sucking root)- परजीवी पौधों की कुछ जातियां, जैसे- अमरबेल (Cuscuta) में इस प्रकार की जड़ें पायी जाती हैं। ये जड़ें पोषद पौधे में धंसकर भोजन अवशोषण का कार्य करती हैं। इस प्रकार की जड़ों को परजीवी मूल कहते हैं। इनके अन्य उदाहरण हैं- विस्कम (Viscum), साइट्स आदि |

(vii) उपरिरोही मूल या वायवीय जड़ (Epiphytic root or Aerial root)- इस प्रकार की जड़ें हवा में लटकी रहती हैं तथा अधिपादप पौधों में पायी जाती है। ये जड़ें हवा में लटककर नमी का अवशोषण करती हैं। उदाहरण- आर्किड्स |

(viii) प्लावी जड़ (Floating roots )- जलीय पौधों में इस प्रकार की जड़ें पायी जाती हैं। इन जड़ों में एरेनकाइमा ऊतक पाया जाता है, जिनमें वायु संग्रह करके ये पौधों के तैरने में सहायक होती हैं। उदाहरण- जूसिया (Jussiaea )

(ix) स्वांगीकरण जड़ (Assimilatory root)- इस प्रकार की जड़ों की कोशिकाओं में हरितलवक पाया जाता है जिसके कारण ये भोजन निर्माण का कार्य करती हैं। जैसे सिंघाड़ा (Trapa), टीनोस्पोरा (Tinospora )

(x) पत्रमूल या पर्णिल मूल (leaf root or Epiphyllous root)- जब पतियों की सतह पर जड़ें निकलती हैं तो इस प्रकार की जड़ों को पत्र

मूल कहते हैं जैसे- अजूबा (Bryophyllum पथरचट्टा), बिगोनिया |

(xi) कंटक मूल (Thom root)- कुछ पौधों के तने से जड़ें निकलकर सख्त कांटे जैसी हो जाती हैं इन्हें कंटक मूल कहते हैं, ये सुरक्षा का कार्य करती हैं, जैसे मनीप्लांट

(xii) जड़विहीन पादप (rootless plant) ये ऐसे पुष्पी पौधे हैं जिनमे जड़ें अनुपस्थित होती हैं, जैसे- वोल्फिया (Wolfia)|

3. झकड़ा जड़ या तन्तुमय जड़ (Fibrous roots )- एकबीज पत्री पौधों में प्राथमिक मूल कम समय तक ही जीवित रहती हैं। अतः इन पौधों में ताने के आधार से मूले (roots) निकलती हैं, जो झकड़ा मूल तंत्र बनाती हैं।

जड़ के भाग (regions of root)- जड़ के अग्रिम भागों को निम्नलिखित चार विभिन्न क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है

1. मूलगोप (Rootcap)- यह जड़ के अगले सिरे पर एक छोटी पतली तथा चिकनी टोपी के आकार की रचना होती है। यह जड़ों के सिरे पर स्थित कोमल कोशिकाओं को नष्ट होने से बचाती है।

2. कोशिका निर्माण प्रदेश (Zone of cell formation)- मूलगोप के ठीक पीछे शीर्षस्थ विभज्योतक (apical meristem) होता है, जिसमें निरन्तर कोशिका विभाजन के व्दारा नई कोशिकाओं की उत्पति होती रहती है।

3. कोशिका विवर्धन प्रदेश (Zone of cell elongation)- विभाजन प्रदेश के ठीक पीछे जड़ के 3-4 मिलीमीटर भाग में नई बनी कोशिकाएँ
लम्बाई में बढ़ती रहती हैं। इसे कोशिका विवर्धन प्रदेश कहते हैं।

4. कोशिका विभेदन एवं परिपक्वन प्रदेश (Zone of cell defferentiation Zone of cell matuaration)- कोशिका विवर्धन प्रदेश के पीछे कोशिका विभेदन प्रदेश आता है। इस प्रदेश में कोशिकाएँ अपने कार्यों के अनुसार कायांतरित होकर अपना निश्चित अंतिम रूप ले लेती है।

(ii) प्रकंद (Rhizome)- यह शाखित, मांसल (fleshy) और भूमि के अन्दर क्षैतिज अवस्था में मिलता है। छोटे-छोटे पर्व होते हैं तथा पर्व सन्धिया शल्कपत्र से ढकी रहती है; जैसे- अदरक (Ginger), हल्दी (turmeric)

(iii) घनकन्द (corm)- यह संघनित भूमिगत तना है जो भूमि में उर्ध्वाधर वृध्दि करता है, जैसे- अरबी, केसर (crocus) आदि |

(iv) शल्ककन्द (Bulb)- इसमें तना डिस्क के समान होता है और उसके चारों तरफ मांसल शल्क पत्र होते हैं; जैसे- प्याज (Onion), लहसुन |

2. अर्धवायवीय रूपान्तरण (Sub-aerial modification)

(i) उपरिभूस्तारी (Runner)- जब तने लम्बे होकर भूमि की सतह पर वृध्दि करते हैं और पर्व संधियों पर नीचे की ओर जड़ें निकलती हैं। तथा ऊपर की ओर पत्ती निकलती है, उपरिभूस्तारी कहलाते हैं; जैसे- दूबघास (Cynodon dactylon), खट्टीबूटी (Oxalis)|
(ii) भूस्तारी (Stolon)- इसमें शाखाएँ मुख्य तने के आधार से निकलकर भूमि पर सभी दिशाओं में वृध्दि करती है। जैसे- फ्रेगेरिया (fragaria), पीपरमिंट, चमेली |
(iii) भूस्तारिका (Offset )- ये सामान्यतः जलीय पौधे होते हैं। इनका पर्व छोटा एवं फूला होता है तथा पर्वसंधियों पर पत्तियों का समूह एवं जड़ें लगी होती है जैसे पिस्टिया (Pistia ), जलकुम्भी (Eichhornia)|
(iv) अन्तः भूस्तारी (Sucker)- इसमें मुख्य तना जमीन के भीतर क्षैतिज रहते हुए वृद्धि करता रहता है, परन्तु शाखाएँ भूमि के ऊपर पर्व संधियों (nodes) से निकल आती है; जैसे- पोदीना (mint), अन्ननास, गुलदाउदी ( chrysanthemum)|