Class 12th Biology Chapter 2 Short Notes in Hindi - Up board 12th Biology Sexual Reproduction in Flowering Plants Notes in Hindi

Class 12th Biology Chapter 2 Short Notes in Hindi – Up board 12th Biology Sexual Reproduction in Flowering Plants Notes in Hindi

Class 12th Biology Chapter 2 Short Notes in Hindi – Up board 12th Biology Sexual Reproduction in Flowering Plants Notes in Hindi

इस पोस्ट के माध्यम से मैंने यूपी बोर्ड हिंदी मीडियम के छात्रों के लिए यहां पर कक्षा 12 में जीव विज्ञान अध्याय 2 का शॉर्ट नोट्स दिया है इस नोट्स में मैंने कक्षा 12 में जीव विज्ञान पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन का नोट्स शॉर्ट में करके बताया है यह नोट्स बोर्ड परीक्षा से पहले आप जरूर पढ़ ले इस नोट्स से आपका रिवीजन हो जाएगा और बोर्ड में अच्छा नंबर पाएंगे |

पुष्पी पादपों का जीवन चक्र/आवृतबीजी पौधों  का जीवन चक्र-

पुष्पी पादप (आवृतबीजी पौधे) बीजाणुजनक (sporophyte; 2n) होते हैं। ये अगुणित (haploid; n) बीजाणुओं (spores) के द्वारा जनन करते हैं। इन पौधों में ये बीजाणु दो प्रकार के होते हैं अर्थात् ये पौधे विषमबीजाणुक (heterosporous) होते हैं। बीजाणुओं को लघु या सूक्ष्मबीजाणु (microspore) और दीर्घ या गुरुबीजाणु (megaspore) कहते हैं जो अंकुरित होकर क्रमशः नर तथा मादा युग्मकोद्भिदों (gametophytes) का निर्माण करते हैं। इन्हीं के द्वारा युग्मकों (gametes) का निर्माण होता है। नर और मादा युग्मक के मिलने (निषेचन) से फिर द्विगुणित अवस्था आ जाती है। इस प्रकार बनी हुई कोशिका (2) युग्मनज (zygote) कहलाती है। यही कोशिका भ्रूण (embryo) का निर्माण करती है। भ्रूण बीज के अन्दर रहता है। बीज का भ्रूण अंकुरित होकर एक नये पौधे का निर्माण करता है। इससे बनने वाली नई संतति फिर से द्विगुणित या बीजाणुजनक पीढ़ी होती है। इस प्रकार, पीढ़ियों का एकान्तरण (alternation of generations) होता रहता है।

पुष्पी पादपों (आवृतबीजी पादपों) में लैंगिक जनन –

पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन के लिए अंग पुष्प में होते हैं।

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सामान्यतः पुष्प में चार चक्र होते हैं-

  1. बाह्यदलपुंज (Calyx) – ये अनेक बाह्यदलों से बने होते हैं।
  2. दलपुंज (Corolla) – ये अनेक दलों (petals) से बने होते हैं।
  3. पुमंग (Androecium) – यह पुष्प का नर जनन अंग है जो अनेक पुंकेसरों से बना होता है।
  4. जायांग (Gynoecium) – यह पुष्प का मादा जनन अंग है जो एक या अनेक अण्डपों (carpels) से बना होता है।

नर जनन अंग : एक पुंकेसर या लघुबीजाणुपर्ण (Micro- sporophyll) –

पुंकेसर, जिसमें दो परागपालियाँ होती हैं, द्विकोष्ठी या डाइथीकस (dithecous) कहलाता है। कभी-कभी जैसे गुड़हल (Hibiscus rosa sinensis) आदि में यह एककोष्ठी या मोनोथीकस (monothecous) होता है। परागकोश के अन्दर परागकण (pollen grains) बनते हैं।

नर युग्मकोद्भिद : लघुबीजाणु या परागकण –

पराग पुट में विशेष कोशिकाओं लघुबीजाणु मातृ कोशिकाओं (2n) से लघुबीजाणु चतुष्कों का निर्माण अर्द्धसूत्री विभाजन के द्वारा होता है। अतः लघुबीजाणु जो बाद में परागकण बनते हैं अगुणित (n) होते हैं। सामान्यतः चतुष्क के बीजाणु एक-दूसरे से शीघ्र ही अलग हो जाते हैं और परागपुट • या लघुबीजाणुधानी में बिखरे पड़े रहते हैं। एक मातृ कोशिका से 4 परागकणों का निर्माण होता है। चतुष्क का प्रत्येक बीजाणु एक नर युग्मकोद्भिद की प्रथम कोशिका है।

परागण (Pollination)-

किसी पुष्प के परागकोशों से निकले हुए परागकणों के उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर अथवा उसी जाति के किसी दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचने की क्रिया को परागण (pollination) कहते हैं। परागण में, परागकणों को किसी कर्मक द्वारा वर्तिकाग्र तक लाया जाता है। यहाँ इन परागकणों का अंकुरण होता है और पराग नलिकाएँ बनती हैं।

उपरोक्त विवरण के अनुसार परागण सामान्यतः दो प्रकार का होता है

  1. स्व-परागण (Self-pollination or autogamy) – परागकणों के उसी पुष्प के वर्तिका पर पहुँचने की क्रिया।
  2. पर-परागण (Cross-pollination or allogamy) – परागकणों के उसी जाति के किसी दूसरे पौधों पर लगे पुष्प के वर्तिका पर पहुँचने की क्रिया ।

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मादा जनन अंग : जायांग या स्त्रीकेसर अथवा अण्डप या गुरुबीजाणुपर्ण (Megasporophyll) –

एक पुष्प का जायांग एक या अधिक अण्डपों के मिलने से बनता है। यह एक स्त्रीकेसर या गुरुबीजाणुपर्ण (carpel or megasporophyll) है। इसके तीन प्रमुख भाग किए जा सकते हैं—स्वतन्त्र सिरा जो परागकणों को ग्रहण करता है, वर्तिकाग्र कहलाता है। आधार का फूला हुआ भाग अण्डाशय (ovary) कहलाता है। अण्डाशय तथा वर्तिकाग्र के मध्य एक वृन्त की तरह की संरचना वर्तिका (style) कहलाती है। कुछ पौधों के पुष्पों में जायांग के अवयव (अण्डप) आपस में संयुक्त (syncarpous) हो जाते हैं; अतः कई अण्डप होते हुए भी एक ही अण्डाशय दिखायी देता है। प्रत्येक अण्डाशय के अन्दर बीजाण्डासन (placenta) पर लगी एक या अनेक छोटी-छोटी, प्रायः गोल, संरचनाएँ रहती हैं। इनको बीजाण्ड (ovules) कहते हैं। प्रत्येक बीजाण्ड एक विशेष प्रकार की गुरुबीजाणुधानी (megasporangium) है।

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बीजाण्ड की संरचना (Structure of ovule ) –

एक परिपक्व बीजाण्ड, लगभग गोल संरचना है। एक बीजाण्ड पर प्रायः दो आवरण बाह्य तथा अन्तः अध्यावरण होने के कारण बाइटेगमिक (bitegmic) होता है। एक स्थान पर एक छिद्र, बीजाण्डद्वार (micropyle) होता है। दोनों आवरणों के अन्दर एक विशेष पोषक ऊतक बीजाण्डकाय (nucellus) होता है।

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प्रत्येक बीजाण्ड एक बीजाण्डवृन्त (funicle) के द्वारा बीजाण्डासन (placenta) पर जुड़ा रहता है। बीजाण्ड पर यह स्थान नाभिका (hilum) कहलाता है। बीजाण्डकाय के इस स्थान को निभाग (chalaza) कहा जाता है। बीजाण्ड बीजाण्डकाय के अन्दर प्रमुखतः बीजाण्डद्वार की ओर एक सामान्यतः 8 केन्द्रकों वाली थैले सदृश संरचना भ्रूणकोष (embryo sac) होती है। यह मादा युग्मकोद्भिद (female gametophyte) है। बीजाण्ड के विभिन्न भागों की स्थिति बीजाण्डासन (placenta) पर उसके झुकाव के आधार पर बीजाण्ड कई प्रकार के हो सकते हैं; जैसे—ऑर्थोट्रॉपस (orthotropous) बीजाण्ड सीधा होता है। इसके अतिरिक्त हेमीट्रॉपस (hefmitropous) लगभग अनुप्रस्थ और बीजाण्डवृन्त के साथ समकोण पर, वक्र (campylotropous) अनुप्रस्थ ही होता है किन्तु यहाँ बीजाण्डकाय वक्रित होता है। एम्फीट्रॉपस ( amphitropous) में बीजाण्डकाय तथा साथ कुछ भ्रूणकोष दोनों वक्रित होते हैं। एनाट्रॉपस (anatropous) बीजाण्डवृन्त की अधिक वृद्धि के कारण अध्यावरण (integument) दूरी तक जुड़कर रेफी (raphe) का निर्माण करता है जबकि उल्टा होता है। सर्सिनोट्रॉपस (circinotropous) बीजाण्ड एक बार उलटा होने के बाद घूमकर फिर सीधा हो जाता है।

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बीजाण्ड का परिवर्द्धन तथा गुरुबीजाणुजनन 

बीजाण्ड, अण्डाशय के अन्दर, सर्वप्रथम, एक छोटे-से उभार के रूप में, बीजाण्डासन पर निकलता है। यही उभार बीजाण्डकाय होता है। दोनों अध्यावरण बढ़कर लगभग पूरे बीजाण्डकाय को ढक लेते हैं। केवल सिरे पर एक छिद्र, बीजाण्ड द्वार रह जाता है। बीजाण्ड वृन्त का निर्माण निभाग के लम्बाई में बढ़ने के कारण होता है। बीजाण्ड द्वार की ओर वाले सिरे पर कुछ अन्दर की ओर कोई कोशिका अधिक स्पष्ट तथा बड़ी होकर गुरुबीजाणु मातृ कोशिका की तरह कार्य करती है। इसी में अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा जनन की क्रिया होती है।

परागण से निषेचन (Fertilisation from pollination) –

नर युग्मकोद्भिद तथा मादा युग्मकोद्भिद पर क्रमशः नर तथा मादा युग्मक उत्पन्न होते हैं। नर युग्मक, मादा युग्मक के पास पहुँचता है और उसके साथ संयुक्त हो जाता है। इस क्रिया को निषेचन कहा जाता है। आवृतबीजी पौधों में परागकण ही नर युग्मकोद्भिद हैं। परागकण (pollen grains) परागण (Pollination) के द्वारा वर्तिकाग्र पर पहुँचते हैं।

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  • वर्तिकाग्र पर सुविधाएँ प्राप्त करके परागकण (pollen grains) अंकुरित होते हैं। प्रत्येक परागकण से इस प्रकार, एक पराग नलिका (pollen tube) बढ़ जाती है। इसमें नलिका केन्द्रक (tube nucleus) तथा उसके पीछे जननकेन्द्रक होता है। जनन केन्द्रक कुछ समय के पश्चात् विभाजित होकर 2 नर युग्मकों (male gametes) का निर्माण करता है। पराग नलिका वर्तिकाग्र से होकर वर्तिका में धीरे-धीरे क्रमशः अण्डाशय (ovary) तक पहुँचती है।
  • अण्डाशय में पहुँचकर किसी एक बीजाण्ड के अन्दर प्रायः बीजाण्डद्वार से सीधे बीजाण्डकाय के अन्दर होती हुई भ्रूणकोष के अन्दर पहुँचती है।
  • भ्रूणकोष (embryo sac) में 8 केन्द्रक होते हैं—इनमें से 3 कोशिकाओं के रूप में, निभागीय सिरे पर अण्ड उपकरण (egg apparatus), तीन विपरीत सिरे पर प्रतिध्रुवीय कोशिकाएँ तथा 2 केन्द्रक भ्रूणकोष के मध्य में शेष कोशिकाद्रव्य में चिपके हुए होते हैं। इस प्रकार के भ्रूणकोष में 7 कोशिकाएँ ही होती हैं।
  • पराग नलिका भ्रूणकोष में प्रायः एक सहायक तथा अण्ड कोशिका के बीच से होकर अथवा सहायक कोशिका के अन्दर से (उसे तोड़कर प्रवेश करती है) इसका सिरा फूलकर फट जाता है तथा दोनों नर केन्द्रक कोशिकाद्रव्य के साथ भ्रूणकोष में स्वतन्त्र हो जाते हैं।

द्विनिषेचन तथा त्रिसंयोजन या त्रिसंलयन (Double fertilisation and triple fusion)

दोनों नर केन्द्रकों में से एक अण्ड कोशिका के साथ संलयित हो जाता है तथा दूसरा केन्द्र में दोनों ध्रुवीय केन्द्रकों के साथ संलयित हो जाता है। यह क्रिया द्विनिषेचन तथा त्रिसंलयन कहलाती है जो आवृतबीजी पौधों का एक लाक्षणिक गुण है। इस क्रिया के फलस्वरूप ही विशेष प्रकार के ऊतक, भ्रूणपोष का निर्माण होता है। बिना द्विनिषेचन अथवा केवल एकल निषेचन होने से भ्रूणपोष का निर्माण नहीं हो पाता, अतः बीज अस्वस्थ रहता है और इसमें जीवन की क्षमता (viability) नहीं रह पाती।

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भ्रूण का परिवर्द्धन

निषिक्ताण्ड (Oospore) में विभाजनों का क्रम, लगभग सभी आवृतबीजी पौधों में, प्रारम्भिक रूप में एक जैसा होता है। फिर भी, बाद की अवस्थाओं में काफी अन्तर पाये जाते हैं। इसी कारण, परिपक्व भ्रूण के स्वरूप में अत्यधिक विभिन्नता पायी जाती है; जिससे 2 प्रकार के भ्रूणों (embryos), द्विबीजपत्री तथा एकबीजपत्री का निर्माण होता है।

भ्रूणपोष का परिवर्द्धन

एन्जियोस्पर्म्स में भ्रूणपोष प्रायः त्रिगुणित (3n) होता है ऐसे बीज, जिनमें भ्रूणपोष होता है, भ्रूणपोषी अन्यथा अभ्रूणपोषी कहलाते हैं।

  • परिवर्द्धन के आधार पर आवृतबीजी पौधों में भ्रूणपोष 3 प्रकार का होता है— केन्द्रकीय (nuclear) जब भित्तियों का निर्माण नहीं होता है, – कोशिकीय (cellular) जब केन्द्रकों के विभाजन के साथ ही कोशिका भित्तियाँ बनती रहती हैं। हेलोबियल (helobial) केवल, केन्द्रक के प्रथम विभाजन के बाद ही भित्ति का निर्माण होता है।
  • द्विनिषेचन के बाद भ्रूण तथा भ्रूणपोष के परिवर्द्धन के साथ-साथ अण्डाशय तथा सम्बद्ध अन्य भागों में अनेक प्रकार के परिवर्तन और रूपान्तर से पुष्प के स्थान पर अण्डाशय से फल (fruit) और इनके अन्दर बीजाण्डों से बीजों (seeds) का निर्माण होता है।
  • बीजाण्डकाय तो प्रायः भ्रूणपोष के परिवर्द्धन के साथ-साथ लुप्त ही हो जाता है। कभी-कभी परिपक्व बीज में यह भ्रूणपोष के चारों ओर एक पतली पर्त के रूप में रह जाता है जिसे पेरिस्पर्म (perisperm) कहा जाता है।
  • फल सामान्यतः एक परिपक्व अण्डाशय ही है। अण्डाशय की भित्ति परिपक्वन (maturation) पर फलभित्ति (pericarp) बनाती है। कुछ पौधों के फल, अण्डाशय के अतिरिक्त पुष्प या इससे सम्बन्धित अन्य भागों के सम्मिलित होने से बनते हैं। ऐसे फल असत्य फल (false fruits) कहलाते हैं।

उभयमिश्रण एवं असंगजनन (Amphimixis and apomixis)

लैंगिक जनन की सामान्य क्रियाओं में दो प्रमुख घटनाएँ महत्त्वपूर्ण तथा प्रायः अनिवार्यतः घटित होने वाली हैं— (i) किसी मातृ कोशिका का (1) अर्द्धसूत्री विभाजन के द्वारा अगुणित होना। बीजाणोद्भिद में ऐसा, अगुणित बीजाणु बनाने के लिए होता है जिससे युग्मकोद्भिद का निर्माण हो सके। (ii) दो युग्मकों (नर व मादा), जो अगुणित होते हैं, का संयुग्मन व संलयन जिससे एक द्विगुणित (diploid = 2n) कोशिका बन सके तथा बीजाणोद्भिद का निर्माण हो सके। सामान्य प्रकार के नर व मादा युग्मकों के संयोजन को उभयमिश्रण (amphimixis) कहते हैं। अनेक उदाहरणों में सामान्य उभयमिश्रण की प्रक्रिया अर्थात् संयोजन तथा अर्द्धसूत्रण नहीं होते हैं और इनके बिना ही नये पौधे बन जाते हैं तो यह क्रिया असंगजनन (apomixis) कहलाती है। असंगजनन प्रायः दो प्रकार का कायिक प्रवर्धन तथा अनिषेकबीजता (agamospermy) के रूप में होता है।

अनिषेकबीजता विभिन्न प्रकार की हो सकती है, जैसे—अगुणित अनिषेकजनन, द्विगुणित अनिषेकजनन, अपबीजाणुता (apospory) आदि। अनिषेकबीजता की उपरोक्त सभी क्रियाएँ, जिनमें निषेचन नहीं होता और भ्रूण बनता है, अनिषेकजनन (parthenogenesis) कहलाती हैं। इस प्रकार की क्रियाओं से भ्रूण बनने के अतिरिक्त आवृत्तबीजियों में यदि फल भी बन जाता है तो ये क्रियाएँ अनिषेकफलन (parthenocarpy) कही जाती (parthenocarpic fruit) कहलाता है।

अपयुग्मन (Apogamy)

बिना युग्मक बने भ्रूण का निर्माण अपयुग्मन कहलाता है।

  • आवृतबीजी पौधों में जीवन चक्र को आगे बढ़ाने के लिए बीज उनकी नन्हीं सन्ततियाँ हैं। एक विशालकाय पौधे का एक छोटा-सा स्वरूप एक भ्रूण के रूप में बीज के अन्दर प्रसुप्तावस्था में होता है। इसी से आगे चलकर, अंकुरण के बाद एक लघु पादप या नवोद्भिद (seedling) का निर्माण होता है। यही लघु पादप बढ़कर एक नवीन जीवन चक्र के लिए सामान्य पादप स्वरूप में विकसित हो जाता है।
  • आवृतबीजी पौधे दो प्रकार के होते हैं-एकबीजपत्री (mono cotyledonous) जिनके बीज में भ्रूण केवल एक बीजपत्र वाला होता है तथा द्विबीजपत्री (dicotyledonous) जिसके बीज में दो बीजपत्र होते हैं। भ्रूण, जब बीजपत्र के साथ भ्रूणपोष के अन्दर रहता है तो भ्रूणपोषी (endospermic) अन्यथा शेष सभी बीज, जिनमें भ्रूणपोष नहीं होता, अभ्रूणपोषी (non-endospermic) कहलाते हैं।
  • परिपक्व अण्डाशय ही वास्तविक फल होता है जिसके दो ही भाग होते – अण्डाशय भित्ति से बनी फल भित्ति (pericarp) और बीजाण्डों के परिवर्द्धन से बने बीज (seeds)। पुष्प या आस-पास के अन्य किसी भाग के इसमें सम्मिलित होने से फल असत्य हो जाते हैं। फल प्रारम्भ में तो मांसल ही होते हैं किन्तु अनेक फल पूर्ण परिपक्वन पर शुष्क (dry) हो सकते हैं। मांसल फल प्रायः भरी (berry) होते हैं जिसमें फल भित्ति की बाह्य पर्त चिकना छिलका बनाती है। शेष भाग मांसल होता है। अण्डाशयों की संख्या उनके जुड़ने तथा फल भित्ति के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के कारण पेपो (pepo), अष्ठिफल (drupe), एम्फीसराका (amphisaraca), नारंगक (hesperidium), सेब्रिया (pome), बैलोस्टा (balausta) आदि प्रकार बन जाते हैं। शुष्क फल सूख कर फट जाते हैं और बीजों को बिखरा देते हैं तो स्फोटी (dehiscent) अन्यथा अस्फोटी (indehiscent) कहलाते है। कुछ शुष्क फल इस प्रकार फटते हैं कि उनके बीज अलग-अलग टुकड़ों में बन्द रहते है। ये वेश्म स्फोटी (schizocarpic) कहलाते हैं।
  • परिपक्व अण्डाशय ही वास्तविक फल होता है जिसके दो ही भाग होते हैं— अण्डाशय भित्ति से बनी फल भित्ति (pericarp) और बीजाण्डों के परिवर्द्धन से बने बीज (seeds)। पुष्प या आस-पास के अन्य किसी भाग के इसमें सम्मिलित होने से फल असत्य हो जाते हैं। फल प्रारम्भ में तो मांसल ही होते हैं किन्तु अनेक फल पूर्ण परिपक्वन पर शुष्क (dry) हो सकते हैं। मांसल फल प्रायः भरी (berry) होते हैं जिसमें फल भित्ति की बाह्य पर्त चिकना छिलका बनाती है। शेष भाग मांसल होता है। अण्डाशयों की संख्या उनके जुड़ने तथा फल भित्ति के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के कारण पेपो (pepo), अष्ठिफल (drupe), एम्फीसराका (amphisaraca), नारंगक (hesperidium), सेब्रिया (pome), , बैलोस्टा (balausta) आदि प्रकार बन जाते हैं। शुष्क फल सूख कर फट जाते हैं। और बीजों को बिखरा देते हैं तो स्फोटी (dehiscent) अन्यथा अस्फोटी (indehiscent) कहलाते हैं। कुछ शुष्क फल इस प्रकार फटते हैं कि उनके बीज अलग-अलग टुकड़ों में बन्द रहते हैं। ये वेश्म स्फोटी (schizocarpic) कहलाते हैं।
  • जब पुष्प में दो या अधिक अण्डाशय वियुक्त (aprocarpous) होते हैं तो ऐसे पुष्प से पुंज फल (aggregate fruits) बनते हैं। कभी-कभी सम्पूर्ण पुष्पक्रम से एक ही फल दिखायी पड़ता है तो इसे संग्रथित फल ((composite fruit) कहते हैं।

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फल तथा बीजों का प्रकीर्णन

एक पौधे पर बने हुए अनेक फल व उनमें उपस्थित कई गुना अधिक संख्या में बीज होते हैं। ये पौधे और उनसे बनने वाले बीज और फल भी अचल होते हैं अतः प्रकीर्णन के लिये वायु, जल, जन्तु आदि में से किसी उचित साधन (agent) जिसके लिये वे अनुकूलित होते हैं, की आवश्यकता होती है। कुछ स्वयं ही स्फुटित होकर बीजों का प्रकीर्णन करते हैं। इस प्रकार फल व बीजों का प्रकीर्णन कई प्रकार से होता है।

बीज की प्रसुप्तावस्था (Dormant stage of seed)

बीज में भ्रूण प्रसुप्तावस्था में होता है। वास्तव में, इस समय इसमें जल की अत्यधिक कमी रहती है तथा जीवन की सभी क्रियाएँ या तो होती ही नहीं या अत्यधिक कम होती हैं। यहाँ तक कि श्वसन भी अत्यधिक कम हो जाता है किन्तु, निश्चय ही भ्रूण जीवित अवस्था में होता है।

  • यद्यपि कुछ बीज ऐसे होते हैं जो मातृ पौधों से अलग होते ही कुछ दिनों बाद यदि न उगे तो मर जाते हैं, परन्तु अधिकतर बीज तो मातृ पौधे से अलग होकर कम से कम एक प्रतिकूल मौसम को तो निकाल ही देते हैं और अनुकूल ऋतु आने पर ही उगते भी हैं।